शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

जनजाति विकास का फंडा कितना तेज कितना मंदा


 क्या उसकी भूख और प्यास अलग है मुझसे, 
दरबदर मारा फिरता है जो इक रोटी के लिए! 
समाज के भले नियमों की क्या ख़बर उसे, 
वह तो जो भी करता है बस अपनी रोज़ी के लिए!
 तोे उसका जीवन उसका क्यों, क्यों मेरा जीवन मेरा है? 
दुःख तो आखि़र दुःख है साहिब न मेरा है न तेरा है। 
कोई मानव जाति , जनजाति जैसी पीड़ा के दौर से संभवतया नही गुजरी है। सदिया बीती बहुत कुछ बदला लेकिन इनका दर्द यथावत है। ब्रीटीश काल में इसकी इंतेहा हो गयी कुछ आदिवासी समूहो को कानून जन्म से अपराधी ठहराना और उनकी संस्कृति का बाजारीकरण इसकी मिसाल है। चिहिन्त जनजाति को इस्तेमाल धन जुटाने के प्रयोजन से किस तरह किया गया मानव सफारी और घोटुल इसके प्रतीक है जिसकी अमुनिषकता पर पाबंदी न्यायालयीय मोर्चाबंदी के बाद लग पायी लेकिन संपूर्ण उपचार नही हुआ,आज भी कुछ जनजातीय समूहो द्वारा जारी देह व्यापार सवाल खड़े कर रहा है। आजादी के बाद बहुत कुछ बदला है किंतु इनके शोषण का दौर रुका नही है। सभ्य समाज इस वर्ग की व्यथा से परिचित है और जनजाति कल्याण के प्रयासो की फेहरिस्त लंबी है किंतु आवश्यक क्रियाशीलता का अभाव दूखद है। इन प्रयोगो का हासिल सिर्फ इतना है कि, आदिकाल में जंगल में जो आज़ादी थी वह भी छिन चुकी है। जनजाति विकास के समानांतर शोषण की सूची है। भूखमरी, अशिक्षा, गरीबी, कर्ज, पलायन, जाति उत्पीड़न, खराब स्वास्थ्य, विलुप्त होती प्रजातियां, लड़कियो की बिक्री, जैसी अनगिनत समस्याओ से धिरा यह समुदाय, अपनी तकदीर बदलने के सपने संजोए सरकार और समाज की ओर टकटकी लगाये हुए है। स्वतंत्रता के उपरांत, सबसे ज्यादा गिरी हुई दशा वाले समुदायो को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए विशेष प्रावधान किये गये। भारतीय संविधान में आर्थिक रुप से बेहद कमजोर और जटिल सामाजिक संरचना वाली जातियो को विशेष रुप से चिन्हित किया गया है। अनुच्छेद 241 व पांचवे अघ्याय के तहत अधिसूचित जातियो में एक अनुसूचित जनजाति है। इस प्रावधान का धर्म से कोई नाता नही है। आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए आरक्षण, जैसे विशेष उपाय करके राजनैतिक, आर्थिक भागेदारी तय की गयी हैं। विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त अनुसूचित जनजाति की पहचान, संस्कृति ,मूल्य को संरक्षित रखते हुए मुख्य धारा और आधुनिक जीवन शैली के साथ उपयुक्त सामंजस्य रखते हुए इन्हे आगे ले जाना सरकार की प्रतिबद्धता है। जनजातीय समुदाय की तरक्की के प्रयास बहुत हुए हंै लेकिन खरबो रुपये खर्चे जाने के बाबजूद मंजि़ल काफी दूर है। इसका मुख्य कारण दुर्गम भोगौलिक स्थिति, निरक्षरता, कमज़ोर आर्थिक व राजनैतिक स्थिति, परिवर्तन के प्रति असहजता एवं जटिल सामाजिक संरचना है और प्रशासनिक स्तर पर समग्र विकास के लिए आबंटित धन के सदुपयोग और दायित्व के प्रति समर्पण की कमी हैं। इसलिए सकल विकास और जनजाति विकास के अंतर को आज तक पटा है। जनजाति विकास के कई महत्ती कार्यक्रम, उदासीनता और भ्रष्टाचार के भेट चढने के कारण़ अनुच्छेद 330, 332 के अधीन पांच वर्ष के लिए दिये गये आरक्षण की अवधि संविधान संशोधन द्वारा दस दस वर्ष के लिए बढ़ती रही है। विकास कार्यक्रमो के आइने में दुर्दशा की जो तस्वीर कैद है वह पीड़ादायक है। शिक्षा, स्वास्थ्य, व आय, जीवन स्तर को च्न्हिित करते हैं। इस मोर्चे पर आदिवासी कतार में सबसे पीछे है। आदिवासियो के गुणात्मक विकास के लिए प्रथम पंचवर्षीष योजना में अलग से निधि की व्यवस्था की थी, जो उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। आबंटित राशि ख़र्च तो हुई किंतु प्रगति आंकड़ांे की ज़मीनी कहानी, कुछ और ही किस्सा बयां करती है, नतीजतन, हालात को मद््दे नज़र रखते हुए आज की ज़रुरतो के अनुसार, जनजाति विकास के नये रास्ते तलाशने के लिए, केन्द्र सरकार ने 17 अगस्त 2013 को स्थिति के आंकलन के लिए, उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है इस समिति के अध्यक्ष प्रो0 विर्गीस एक्सा और डा0 उषा रंगरामनाथन, डा0 अभयबेग, डा0 यूसूफ बांरा, डा0 के.के.मिश्रा, सुनीला बसंत सदस्य है। गठित समिति, आदिवासी समुदाय की सामाजिक,आर्थिक,स्वस्थ्य, शिक्षा, परिसंपति व आय के आधार पर भोगौलिक और वित्तीय स्थिति को सामने रखकर रोज़गार के नये स्त्रोत, सार्वजनिक निजि क्षेत्र में रोजगार, विकास का स्तर, बुनियादि ढांचे की कमी या लाभ, आदिवासी अत्याचार शोषण का उन्मूलन, पंचायत सशक्तीकरण, अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार, पलायन, कजऱ्, साक्षरता, वन अधिकार और खाद्य क़ानून का लाभ आदि बिंदुओ पर नौ माह में रिपोर्ट देगी। अनुमान है कि अतीत की सही समीक्षा , भविष्य के लिए कारामद होगी। लेकिन अतीत की योजनाओ का हश्र डर पैदा करने वाला है। जनजाति उत्पति राजतंत्रीय व्यवस्था की देन है, सबसे कट के जंगल और दुर्गम क्षेत्र में बसने की वजहे इतिहास के पन्नो में अंकित है। सामंती काल में निर्वासित, अपराधी, सन्यासी, तपस्वी, पराजित योद्वा सहित समाज बहिष्कृत जनों ने जंगल का रुख किया। तत्कालीन सामाजिक दृष्टि और जाति प्रथा का योगदान भी कम नहीं है। ब्रीटिश निजाम वनवासियो पर सबसे भारी रहा। इस काल में आदिवासियो ने जो खोया उसकी कोई भरपायी नही है। वनभूमि, जल और वनोपज जनजाति जीवन का आधार है। अंग्रेजी काल के वन बंदोबस्त कारोबारी था जिसका ध्येय व्यवसायिक दृष्टि से एकाधिकार और क्षेत्रों का लाभप्रद दोहन था। रेलवे,उद्योग और बांध के लिए जंगल की ज़मीनें ली गयीं और आदिवासियांे को बिना मुआवज़े के बेदख़ल कर दिया गया क्योकि उनके पास मलिकाना का कोई अभिलेख नहीं था। विकास के नाम पर निर्वाह के लिए आवश्यक, अधिकतम प्राकृतिक स्त्रोतो से वंचित वनवासी का जीवन और अधिक जटिल हो गया,बिगड़ी आर्थिक स्थिति के चलते इनका जीवन स्तर और नीचे गिर गया। आज़ादी के समय सारी ज़मीन का मालिकाना भारत सरकार को सौंप दिया गया तत्कालीन व्यवस्था ने उसकी परख करने के बजाए ग़ुलामी के दस्तावेजो को यथास्थिति में स्वीकार कर लिया। जंगलो में बसे, सही हाथो को अधिकार देने की गंभीरता को नज़र अंदाज किये जाने से जनजाति वर्ग के हितो की उपेक्षा हुई। स्वतंत्रता के उपरांत जनजाति उत्थान की जिम्मेदारी भारत सरकार पर आ गयी लेकिन विरासत में सदियो से शोषित इन समुदायो को लिए कुछ बेहतर कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं था। नीति-निर्माताओ ने इनके विकास की ओर ध्यान दिया किंतु प्रभावी ब्रीटिश कालीन क़ानून मार्ग की बाधा बने रहे। जनजाति कुनबा सन् 2011 गणना के अनुसार जन जाति आबादी 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार 34 है, जो सकल आबादी का 8.6 प्रतिशत हिस्सा है। जिसमें 9 करोड़ 36 लाख गांवो में और 1 करोड़ 4 लाख 61 हजार 872 शहरो में रहते है । आंकलन के अनुसार आदिवासी, देश के 15 फीसदी भूभाग में फैले हुए हैं । मध्यप्रदेश , उड़ीसा महाराष्ट्र, गुजरात , राजस्थान , झारखंड , छत्तीसगढ़ आन्घ्रा प्रदेश में सकल जनजाति आबादी का 83.2 फीसदी है और 15.3 प्रतिशत असम, मेघालय, नगालैंड , जम्मू कश्मीर , त्रिपुरा, मिज़ोरम, बिहार, मणिपुर अरुणांचल, तमिलनाडु तथा शेष 2.3 फीसदी जनसंख्या उन राज्यो में है जहां जनजाति अधिसूचित नही है या जिनका कोई स्थायी डेरा नही है। संख्यात्मक दृष्टि से सबसे ज्यादा आदिवासी मघ्यप्रदेश में रहते है और सबसे कम आबादी केन्द्र शासित चंडीगढ़ जैसे राज्य में है। आदिवासी आबादी 91.7 फीसदी आबादी ग्रामीण और 2.3 प्रतिशत शहरी है। एक अध्ययन के अनुसार, आदिवासी भले ही वीराने में रहते हो , लेकिन अंचल विशेष में उनकी संख्या सघन है। ऐसे 75 जि़ले हैं जहां आदिवासियांे की संख्या कुल आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक हैं। 50 जि़लो में आदिवासी सूची लागू नही है। केन्द्र शासित राज्य , पंजाब , चन्डीगढ़, हरियाणा, दिल्ली और पांडिचेरी जन जाति के लिए अधिसूचित नहीं हैं। 593 जि़लों में 50 जि़ले आदिवासी आबादी शून्य है, 278 जि़लो में 4.9 प्रतिशत आबादी है, 5 फीसदी वाले 56, 10 से 19 फीसदी वाले जि़ले 69, 20 से 49 फीसदी आबादी वाले जि़ले 65 , 50 से 74 फीसदी वाले 35 जि़ले, 75 फीसदी आबादी वाले 40 जि़ले हैं । इसी तरह से 4,378 क़स्बो में, इसी क्रम में 1,090, 2420, 3,87, 2.64, 160, 15, 42 है कुल 593615 गांव में क्रमवार 323467, 68189, 237662 , 44,240, 26788, 78507 गांव हैं। आदिवासी बहुसंख्यक राज्य लक्ष द्वीप, मिज़ोरम, नगालैंड , मेघालय, अरुणांचल, दादर नागर हवेली है यहां 60 फीसदी आबादी जनजाति हैं। देश के कुल 5.94 लाख गांवो में, 153 लाख गांव में आदिवासी नहीं हैं । मोटे तौर पर हर चार के पीछे 1 गांव में जनजाति सदस्य नहीं हैं। भारत की सकल आबादी का 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति है, लगभग 654 आदिवासी समुदाय हैं , इनमे 75 समुदाय अति पिछड़े हुए हैं । आन्ध्रा 33, अरुणचल 16, असम 14, बिहार 33, छत्तीसगढ़ 42, गोवा 8, गुजरात 32, हिमाचल 10, जम्मू कश्मीर झारखंड 32, कर्नाटक 50,केरल 43, मघ्यप्रदेश 46, महाराष्ट्र 47, मणिपुर 17, मिजोरम 7, नागालैंड 5, ओडि़सा 62, राजस्थान 12, सिक्किम 11, तमिलनाडु 36,त्रिपुरा 19, उत्तराखंड 5, उत्तरप्रदेश 15, बंगाल 40, अडंमान 6, दादर नागर हवेली 7, दमनदियू 5, जनजाति समुदाय अधिसूचित है। सच्चर कमेटी 2006 के अनुसार आदिवासी 7.40 बौद्व, ईसाई 32.80, सिक्ख 0.90 व इस्लाम 0.05 धर्मावंलबी है। पंचवर्षीय योजना और आदिवासी पंचवर्षीय योजना जनजाति विकास की जीवन रेखा है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के पांच सिद्वांत,जनजाति विकास की अधारशिला है। जिस के ऊपर आदिवासी तरक्की का ढाचा खड़ा है। इस पंच सूत्र का मानक धन नही अपितु मानवीयता है, इस कार्य पर कितना व्यय हुआ इसके बजाए हासिल मानवीय गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। सूत्र के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने बौद्विक परंपरांगत नैगर्सिक अधिकारो को विकसित करने का अधिकार है। जनजाति के वन भूमि पर हक का सम्मान, स्वायत्ता अधिसूचित क्षेत्र में कानून का संचालन उनकी सामाजिक मान्यताओं एवं सांस्कृतिक संस्था के अनुरुप होना चाहिए। स्व0 नेहरु की सोच, जनजाति नीति 1950 का आधार बनी। प्रथम पंचवर्षीय योजना में मुख्य जोर संतृलित विकास पर था अपेक्षित इलाकों में जल, सड़क, स्वास्थ्य सेवाएं, जैसी प्राथमिक अधोसंरचना, आदिवासी इलाको की पहचान व विकास लक्ष्य था संसाधन विकसित करने आदिवासी विकास के लिए विशेष निधि की व्यवस्था की गयी। इस योजना में जनजाति विकास का ख़ाका काफी रंगीन था, प्राकृतिक संसाधनो के विकास के साथ शोषण को रोकने के लिए संगठित पूंजी और बाहरी हस्तक्षेप के विरुद्व उपायो के अलावा कला का संरक्षण, व जनजातीय सामाजिक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने पर बल दिया गया था। द्वितीय योजना (1956- 1961) में इस वर्ग के लिए अधिक अवसर के प्रावधान किये गये, बहुउद्वेश्यीय जनजाति विकास खंड ( एस एम पी टी ) के तहत आदिवासी इलाको को विकसित करने के लिए धन मुहय्या कराया गया। सन् 1959 में गठित वेरियर एल्विन कमेटी ने 60 फीसदी से ज़्यादा आबादी वाले आदिवासी क्षेत्र को विकास के लिए चिन्हित किया था। तृतीय योजना (1961 - 1966) में 60 प्रतिशत से अधिक वाले क्षेत्र (टी डी पी ) के लिए खास इंतेज़ाम किये गये। यूं एस. ढेवर कमेटी (1961) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वन भूमि के बिना आदिवासियो का समुचित विकास संभव नहीं है। उनकी अनुशंसा को अमली जामा के लिए उपाय भी हुए ,चतुर्थ योजना (1969-1974) में लद्यु किसान विकास एजेंसी (एस एफ डी ए) और सीमांत कृषक व खेतिहर मजदूर विकास एजेसी (एम एफ ए एल) व सूखा क्षेत्र कार्यक्रम (टी डी ए) से आदिवासियांे को भी राहत मिली क्योंकि अधिकांश जनजातियां इसके अंतगर्त आती हैं। पंचमयोजना (1974-1979 ) में 504 ट्राइवल ब्लाक का गठन हुआ। आदिवासी विकास उप योजना के तहत शिक्षा व कल्याण मंत्रालय द्वारा 1972 में प्रो0 एस. सी. दुबे की अध्यक्षता में आदिवासी के लिए सामाजिक आर्थिक विकास पहल पहले से अधिक सुसंगठित थी। सातवीं योजना (1985-90 ) प्रचलित कार्य सूत्रो में क्रांतिकारी परिवर्तन के रुप में जानी जाती है। 1979 में जि़ला क्लेक्टरों को आदिवासी विकास के लिए और योजनाओ के निष्पादन क्षेत्रीय ज़रुरत और अधिसूचित क्षेत्र की पंचायत की सलाह से करने का अधिकार दिया गया और जबाबदेह भी बनाया गया। अविकसित क्षेत्रो के उन्नयन के लिए शिवरामन कमेटी ने उप योजना बनाये जाने की सिफारिश की थी इसे समाहित करते हुए उपयोजना के तहत वित्तीय मद से 75 फीसदी खर्च करने की इजाज़त दी गयी। वित्तीय प्रबंध को तीव्र बनाने के लिए टी एस पी बजट हेड कोड 796 के तहत अलग से वित्तीय प्रावधान किया गया जो सकल बजट के 10 प्रतिशत के बराबर है। एस सी ए (ट्राइवल सब प्लान ) और टी पी एस कोष दिये जाने का प्रावधान, आदिवासी विकास के लिए केन्द्र सरकार के 18 मंत्रालय की ओर से निधि प्रबंध का आश्वासन दिया गया। इसके साथ उप योजना के संचालन हेतु प्रशासनिक ढांचा, जिला स्तरीय योजना , कृषि सहकारिता, विपणन सहकारी समितियां , पुर्नवास , स्पेशल सेन्टल असिस्टेंट ( एस सी ए) आठवी पंचवर्षीय योजना (1992-1997) में 1996-97 में योजना और आर्थिकी विभाग मंत्रालय को नोडल बनाया गया। 1996-97 में 16902.66 करोड़ रुपये दिये गये, पर्यावरण सुधार बेहतर सामाजिक सुविधाओं का लक्ष्य नौवीं योजना (1997-2000) उत्पादकता में सुधार, महिला सशक्तीकरण, खाद्य सुरक्षा पोषण 73वां संविधान संशोधन पंचायती राज्य में आरक्षण, औषध, उद्यान और विपणन तथा बाज़ार ग्यारहवीं योजना (2007- 2012) में समावेशी विकास को सुनिश्चित किया गया और के बी के क्षेत्र की सामाजिक व आर्थिक समस्याओ के समाधान के लिए उपाय किये गये ग्रामीण बुनियादी ढांचे का निर्माण को लक्षित करके कार्य योजना बनाया गयी । लक्ष्य की प्राप्ति के लिए योजना आयोग द्वारा 2010 में संचालित गतिविधि की निगाहबीनी समीक्षा व निगरानी तथा कार्यक्रमो के प्रभावी क्रियावन के लिए आयोग के सदस्य नरेन्द्र जाधव की अध्यक्षता में टास्क फोर्स का गठन किया गया। बारहवीं योजना (2013-2017) वित्तीय मोर्चे पर दीर्घकालीन विकास योजनाओ के साथ ही व्यक्तिगत सशक्तता के लिए कई तरह के उपाय किये गये हैं । योजना आयोग ने गतिविधि संचालन के लिए ग्रामीण स्व सहायता समूह के सदस्यो को 81,000 रुपया और शहरी इलाके समूहों को 1,04000 रुपया कर्ज दिये जाने और सहकारी समीति में ग़रीबी सीमा रेखा से दुगुनी आमदनी वालो के लिए प्रावधान किया गया हैं । आदिवासी महिला सशक्तीकरण योजना (ए एम एस वाय) के तहत हितग्राही को 6 प्रतिशत सूद पर 50,000 रुपया तक का क़जऱ्, माइक्रो क्रेडिट स्कीम के अंतर्गत सदस्य को 5 लाख का एस एच जी, 10 प्रतिशत परियोजना व्यय जमा कराने की शर्त पर 35 लाख रुपये तक का ऋण, 1999 में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने आदिवासी को आर्थिक या भागेदारी पर काफी बल दिया सामाजिक सुरक्षा , कल्याण, सामाजिक बीमा, वित्तीय दृष्टि से योजनाओं के क्रियान्वयन और संखलन के लिए प्रथम योजना में सामाजिक सुरक्षा, समाजिक बीमा, जनजाति कल्याण योजना, परियोजना, अनुसंधान, मूल्यांकन, सांख्यिकी, प्रशिक्षण, कल्याण सबंधी स्वैच्छिक प्रयास का संवर्धन व विकास, छात्रवृति, अनुसूचित क्षेत्र आधारभूत संरचना, असम के स्वायत्ता क्षेत्र संविधान की छठवीं अनुसूची के अध्याय 20 की सारणी भाग (क)में विर्निष्ट जनजाति क्षेत्रांे के लिए राज्यपाल के द्वारा बनाये गये विनियम, जन श्री बीमा योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा, वित्तीय लाभ या आय का आधार, मनरेगा अधिनियम, ग्रामीण रोज़गार योजना, जवाहर रोज़गार योजना, अश्वास स्वीस (ई ए एस ) फूडर फार वर्थ प्रोग्राम ( एफ एफ डब्ल्यू) प्रधानमंत्री ग्रामीण स्व रोज़गार योजना (पी एम जी एस वाय) स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोज़गार योजना (एस जी एस वाय) पलायन रोकने के लिए आदिवासी बाहुल्य चार राज्यो मघ्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ , झारखंड, उड़ीसा में लागू इसके तहत 193 गांवों और 160 ब्लाक का चयन किया गया। अनुसूचित जन जाति और अन्य क्रियान्वयन स्थिति की रपट जनजाति विकास की जटिलताओ को नज़र में रखते हुए, कई स्तर पर प्रशासनिक प्रबंध किये गये हैं । इस दिशा में वक़्त ज़रुरत के अनुसार विभागों का गठन और दायित्वों का विभाजन होता रहा है। आदिवासी विकास कार्यक्रमों के संचालन व देख रेख के लिए आयुक्त की नियुक्ति 1950 में की गयी । 1978 में पहले अजजा आयोग का गठन हुआ । 89वां संशोधन अनुच्छेद 338 2007 में 73 0 व 74 संशोधन पंचायत विस्तार अधिसूचित क्षेत्र सदन मे आरक्षण अनुच्छेद 330 के तहत दिया गया है विधान सभा में आरक्षण अनुच्छेद 332 और पंचायत में अनुच्छेद 243 डी के तहत आरक्षण का दिया गया। पांचवें अघ्याय में, पूर्वोत्तर राज्यों के कल्याण व विकास अनुच्छेद 244 के तहत किया गया हैं छठवां अध्याय स्वायत प्रशासन 244 (2)के तहत किदया गया कल्याण अनुदान 275(1)अनुच्छेद 15 शैक्षणिक पिछड़ेपन 15(4) पूरक के लिए विशेष प्रावधान आर्थिक व विकास योजना अनुच्छेद 46 के तहत किया गया हैं। जन जातीय मंत्रालय का गठन अक्टूबर 1999 में सबसे ज़्यादा वंचित वर्ग के लिए सामाजिक, आर्थिक विकास के समन्वित और योजनाबद्ध उदे्श्य को ध्यान में रखते हुए किया गया। परम्परागत वनवासी वन अधिकारो की मान्यता अधिनियम 2006 बदलाव की दिशा में एक अति महत्वपूर्ण कदम है। अप्रैल 2013 तक 32 लाख 42 हज़ार 766 दावा, 12,98, 582 निराकृत, वितरण के लिए 16, 273 किताबें तैयार , 28, 17 हज़ार 748 दावो में 86.89 फीसदी का निपटारा। कुल 18 लाख 99 हजार .11 हेक्टेयर ज़मीन यानि 46 लाख 93 हजार 817.43 एकड़ जमीन का पट्टा जारी किया गया, राष्ट्रीय जनजाति नीति 2006 के अंतर्गत, जनजाति संस्कृति व मूल्य संरक्षा व मुख्य धारा से जोड़ने के उदे्श्य की प्रतिपूर्ति के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आय वृद्धि हेतु गुणवत्ता युक्त उपाय निहित हैं , संविधान की धारा 244, 244ए, 275(1), 342, 338ए 339 , संविधान का पांचवें अध्याय में, प्रशासन व नियंत्रण का अधिकार है जिसकी शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं, उनकी जि़म्मेदारी है कि वे जनजाति मामले की राष्ट्रीय पुर्नवास पुर्न व्यवस्थापन नीति 2007 भूमि अधिग्रहण पुर्नवास पुर्नस्थापन 2011 को मंशा अनुसार क्रियान्वित कराये । 2011 -12 चयनीत आदिवासी व पिछड़े जिलो के लिए एकीकृत वित्तीय प्रदर्शन राज्यवार आकड़े जुटाये गये, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जि़लो के लिए ( ए सी ए) योजना चिन्हित कुल 88 जि़ला एकीकृत कार्य योजना (आई ए पी) बारहवी पंचवर्षीय योजना में 82 जिला समाहित किये गये है। जि़ला क्लेक्टर जि़ला दंडाधिकारी की अघ्यक्षता में पुलिस अधीक्षक, जि़ला वन अधिकारी सदस्य पर योजना क्रियान्वयन की जि़म्मेदारी दी गयी है। सामाजिक आर्थिक मानकों के अनुपात पर व्यय लचीलापन, ग्राम पंचायत की सलाह से प्रकाश बुनियादी ढांचे के काम , सेवायो के प्रस्ताव शिक्षा, स्कूल, चिकित्सा अस्पताल के लिए प्रस्ताव अनुसूचित क्षेत्र उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में आंवटन का 65 प्रतिशत खर्च करने की अनुमति दी गयी है। आदिवासी विकास के लिए विविध योजना और कार्यक्रम शासकीय और ग़ैरसरकारी संस्थाओ के द्वारा संचालित किये जा रहे हैं । अनुच्छेद 275 (1) के तहत राष्ट्रीय आदिवासी वित्त एवं विकास निगम , आदिवासी अनुसूचित क्षे़त्र, एस सी ए (स्पेशल सेन्टल असिस्टेंट) टी एस ए (ट्राइव सब प्लान ) शैक्षिणिक बढ़ावा कार्यक्रम, आदिवासी सहकारी व मार्केटिंग विकास निगम, फैडेरेशन आफ इंडिया लिमिटेड ( टी आर ई एफ इ डी (ट्रीफैड) पर्टिकुलरटी वलदमरेबल ट्राइव गु्रप््स (पी टी जी एस), पूर्वोत्तर राज्यो पर फोकस, जनजाति सलाहकार परिषद (टी ए सी) इन्टीग्रेड ट्राइवल डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट व एजंेसी ( आइ टी डी पी एस, आइ टी डी ए ) मोडीफाईड एरिया डेवेलपमेंट अप्रोच ( एम ए डी ए) दीर्घकालीन कार्ययोजना (आर एल टी ए पी) 1996 के लिए 6251.06 करोड़ आबंटन किया गया बाद में इस कार्य योजना की अवधि नौ साल और बढ़ा कर 2006- 2007 तक कर दी गयी । शिक्षा , किसी भी समाज की तरक्की का मूल मंत्र शिक्षा है। संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 46 में कमज़ोर तबको के लोगो को शैक्षणिक अवसर दिये जाने की व्यवस्था करने का उल्लेख है। अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्यो को दिशा निर्देश है कि कमज़ोर तबक़ों के लिए सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था करे। जनजाति समुदाय तक शिक्षा की पहुच के लिए कई योजनाए है । आंकड़ा पेश करने की बाज़ीगिरी से हर क्षेत्र में तरक्की दिखती है किंतु जनसंख्या वृद्धि को सामने रखकर देखने से उपलब्धि अनुपातिक रुप में ढाक के तीन पात जैसी है। इस नज़रिये से साक्षरता की कथित लंबी छलांग, छोटी दिखायी देती है। अन्य वर्गों के राष्ट्रीय औसत से तुलना करने पर अपेक्षाकृत गिरावट नजर आती है। ज़ाहिर है कि जनजातीय वर्ग में साक्षरता मिशन उतना सफल है। सन् 1961 में साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 24 प्रतिशत था, इसके मुक़ाबले आदिवासी साक्षरता का औसत महज 8.5 फीसदी था सन् 2001 में राष्ट्रीय औसत बढ़कर 64. 85 प्रतिशत था जनजातीय साक्षरता दर 47.10 थी । चालीस साल में कई योजनाआंे के पश्चात आशातीत वृद्धि नहीं हुई, उल्टे कमी आयी , वर्ष 1961 में अनुपातिक अंतर 15.5 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 17.74 हो गया। साक्षरता दर में 2.47 फीसदी कमी आयी। महिला साक्षरता के अनुपात वर्ष 1961 में 12.9: 32 था जो 2011 में 53.67: 34.76 हो गयी , यानि महिला साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से अनुपातिक रुप में 1961 की तुलना में अंतर 9.7 से बढ़ कर 18.91 हो गयी यानि आबादी वृद्धि कि तुलना में साक्षरता की दर दुगुनी घटी है। पूर्वोत्तर राज्यो में आदिवासियो की साक्षरता में उल्लेखनीय प्रगति हुई है शेष राज्य में आंकड़े अवश्य बढ़े है लेकिन जनसंख्या के अनुपात में साक्षरता की दर में गिरावट आयी है। नामांकन में वृद्धि आंकी गयी है। प्राथमिक स्तर पर 123 फीसदी पूर्व माध्यमिक 69 उच्चतर माध्यमिक 37.2 उच्च शिक्षा 4.6 फीसदी की वृद्धि है । इसमें माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक स्तर की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालो की संख्या काफी है, इस लिहाज़ से कुल मिलाकर नामांकन घटा है । शिक्षा के लिए 6 फीसदी ब्याज़ पर 5 लाख तक का कर्ज व अनेक तरह की छात्रवृतियां हैं , लेकिन उच्च शिक्षा में नामांकन का प्रतिशत राष्ट्रीय बहुत कम है । स्वास्थ्य स्वास्थ्य सेवाएं न्यून हैं । अधिकतर लोग स्थानीय वैद्य व झाड़ फूंक पर निर्भर है। दूर दराज़ के क्षेत्र में चिकित्सक जाना नहीं चाहते हैं। छत्तीसगढ़ के जि़ला बलरामपुर में 96 गांवो के बीच एक डाक्टर है बाकी प्राथमिक चिकित्सा परिचारको और दफ्तरियो के हवाले है। मलेरिया और पीलिया जैसे साघ्य रोगो से भी बड़ी तादाद में मृत्यु होती है । केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से स्वस्थ्य रक्षा के लिए वैसे तो कई उपाय किये गये हैं , स्मार्ट कार्ड जैसी योजनाएं हैं , लेकिन अस्पताल इतनी दूर हैं कि साधनविहीन ग़रीब आबादी का ख़र्चा करके बीमारी की हालत में वहां तक पहुंचना कठिन साघ्य है और पहुंच गये तो वक़्त पर सही ईलाज दुर्लभ है। इससे यह समुदाय योजनाओ के लाभ वंचित है। चलित चिकित्सा सेवाएं किताबी हैं । आकड़ो के अनुसार सभी वर्ग के लिए स्वास्थ्य सेवाओ की उपलब्धता 31.9 फीसदी है लेकिन केवल 2.6 प्रतिशत आदिवासी तक इसकी पहुच है। यह आंकड़ा अपने आप ही सारी कहानी कह देता है । आदिवासी मरीजो के साथ चिकित्सा के दौरान असमान्य व्यवहार को देखते हुए आदिवासी बाहुल्य राज्य अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में सरकारी अस्पताल में आदिवासियो के लिए अलग वार्ड बनाया गया है ताकि आदिवासी प्रताड़ित हुए बिना इलाज करा सके । कमोवेश यह परिदृश्य हर जगह है लेकिन पोर्ट ब्लेयर जैसा प्रबंध किसी जगह नही है। आमतौर से रोग विशेष के लिए अलग से कक्ष होते है किंतु जाति विशेष के लिए ऐसे इंतेजाम की लाचारी कथित मानवीय संवेदनशीलता का कच्चा चिट्टा है। जनजाति की गरीबी उसकी बीमारी का सबसे बड़ा कारण है। 62 फीसदी आदिवासी कुपोषित बच्चे है । कम वजन वाले बच्चों का राष्ट्रीय औसत 57 फीसदी है। आन्ध्र प्रदेश के आदिवासी सर्वाधिक कुपोषण के शिकार है आन्ध्रा इस तालिका में सबसे उपर है, यहां 94 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं , झारखंड 93 फीसदी और गुजरात में 86 फीसदी बच्चे कुपोषित है। 5 साल से कम उम्र बच्चो के कम वजन का आकड़ा चौकाने वाला है। इस आयु वर्ग के दुर्बल जनजाति बच्चो की संख्या आन्ध्रा 25.7, गुजरात 23.2 मणिपुर 21.5 फीसदी है। एन एफ एच एस (दो ) के आकड़े के अनुसार समान्य वर्ग और जनजाति में 25 फीसदी का अनुपातिक अंतर है । एक आंकलन के अनुसार इस वर्ग के 23.3 प्रतिशत बच्चो का वज़न सामान्य से बहुत गंभीर रुप से हैं, 52.1 फीसदी स्कूली बच्चो का वज़न कम पाया गया है रक्त अल्पता (एनिमिया) से 54 प्रतिशत और गण्डमाला से 13 फीसदी आबादी ग्रस्त है। औसत ऊंचाई 2 से 3 सेंटीमीटर कम है शारीरिक विकास में कमी और रुग्णता का अनुपात जनजाति की वास्तविक स्थिति को एक हद तक साफ करता है । सरकार द्वारा कराये गये ताजा अघ्ययन के अनुसार 1 से 5 साल की उम्र वाले कम वजन के बच्चे सबसे कम 13 प्रतिशत मेघालय में और सबसे ज्यादा 70 प्रतिशत गुजरात में है विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात ,कर्नाटक, आन्ध्र, मघ्यप्रदेश, ओडि़सा महाराष्ट्र में कम वजन वाले बच्चे 60 फीसदी से ज्यादा है। भूखमरी के विरुद्ध खाद्यान्न कार्यक्रम और सस्ता राशन जैसी योजनाओ के बाद इतना कुपोषण अपने आप में एक बड़ा सवाल है। संरक्षा पैकेज आकर्षक और मानवीय संवेदनाओ का उज्जवल पक्ष है लेकिन कुपोषण का आंकड़ा इंगित करता है कि दुर्दशा कितनी गहरी है। । महिला और शिशु कुपोषण, मृत्यु दर औसत राष्ट्रीय औसत से काफी उच्च है। अशिक्षा के कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता की बेहद कमी है नया ज्ञान आज भी इनसे कोसो दूर है। कई सामाजिक कुरितिया भी इनके स्वस्थ्य के लिए हानिप्रद है किंतु उसे परंापरिक रुप से ये ढो रहे है मिसाल के तौर पर बाल विवाह कानूनी तौर पर प्रतिबंधित है लेकिन सामाजिक मान्यताओ के अधीन इसका क्रम जारी है कम उम्र में विवाह मानसिक व शारिरिक रोगो को बढ़ावा देने का कारक है। इसी तरह से अधिक मंदिरा का सेवन, शत्रु से ज्यादा सेहत के लिए घातक है लेकिन सामाजिक मान्यताओ के चलते वे इसको त्यागने को तैयार नही है। सरकार की ओर से निर्धारित मात्रा में शराब बनाने की छूट और सामाजिक कार्यक्रमो तथा पर्व में इस्तेमाल की छूट एक दूखद कड़ी से कम नही है। दुर्गम क्षेत्रो मे छोटी मोटी बीमारी भी अकाल मृत्यु का कारण बनती है। संक्रामक रोगो से बचाव के साधन ना के बराबर है स्थानीय स्तर पर मौत की खबरो और सरकार द्वारा प्रकाशित आंकड़ो में भारी विरोधभाष है। सरकारी कर्मचारी सही जानकारी देने में इसलिए डरते है कि इसकी रोकथाम की जिम्मेदारी उन पर है उन्हे लगता है कि वे सच बतायेगे तो उन्हे ही दंडित किया जायेगा आवास, पेयजल, प्रसाधन, प्रकाश भारत में कुल मकानो की संख्या 26 करोड़ 66 लाख 92 हजार 667 है आदिवासी के 23 लाख 9 हजार 105 घर है जिसमें 40.6 फीसदी घरो को अच्छी दशा का माना गया है 22. 6 फीसदी शौचालय युक्त है 17.3 प्रतिशत घरो में स्नानागार है और 6.1 फीसदी मकानो में पानी निकासी के लिए नाली है केवल 53.7 फीसदी आवासो में रसोई घर है। जिसमे तेल और एल पी जी ची एन जी बिजली से खाना पकाने जैसी सुविधा 12 प्रतिशत है बाकी 84 प्रतिशत लकड़ी, कचड़ा, डंडल, कोलतार पर निर्भर है। कुल 45.6 प्रतिशत लोगों के पास खुद का मकान हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार 44 प्रतिशत आदिवासी घुमक्कड़ हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे लोगो का कोई स्थायी ठिकाना नहीं है। अन्य जरुरी सुविधाओ के मामले में भी यह वर्ग काफी पीछे है केवल 1.6 प्रतिशत आदिवासी सुसज्जित मकान में रहते है 21.9 फीसदी घरो में टेलीविजन , 36 प्रमिशत लोगो के पास सायकिल, 31. 1 फीसदी मोबाइल धारक है केवल 9 फीसदी लोगो केपास दो पहीया वाहन और 1.6 फीसदी लोगो केपास चार पहिया वाहन है जो राष्ट्रीय औसत का सबसे न्यूनतम स्तर है। पेयजल अन्य वर्गो की तुलना में आदिवासियो को स्वच्छ जल की आपूर्ति कम है जहां आवासीय पेय जल उपलब्धता का राष्ट्रीय औसत 46.6 है वही आदिवासियो के 19.7 फीसदी को यह सुविधा है 37.6 फीसदी आदिवासियो को अवास से काफी दूर जाकर पानी लाना पड़ता है । प्रकाश आदिवासी अंचलों में बिजली की कमी है एक आंकलन के अनुसार कल 31.4 प्रतिशत घरो में बिजली है, 67.2 फीसदी आदिवासी प्रकाश के लिए किरोसीन पर निर्भर है। लक्षद्वीप 99.7, दमनदियू 96.6 अंडमान 94, गोवा 93, सिक्किम 90.8, मिज़ोरम 84.3, नागालैंड 81.2 हिमाचल प्रदेश 94.5 फीसदी घरों में मिट््टी तेल की ढिबरी से रौशन हंै। एक अन्य अध्ययन के अनुसार उड़ीसा में 11 फीसदी आदिवासी आवास में बिजली से प्रकाशित है इस राज्य के वनांचल में मिट्टी तेल की भारी खपत है । 7.4 प्रतिशत आदिवासी के पास न तो बिजली है न मिट्टी का तेल, वे पूर्णतया प्रकृति पर निर्भर हैं। रोज़गार 2001 की गणना के अनुसार 36.9 फीसदी खेत मजदूर, 2.1 प्रतिशत भूमि स्वामी नौकरी 16.3 फीसदी अन्य व्यवसाय, जिसमें 81.6 प्रतिशत निचले स्तर के कार्यों से संबद्व हैं। ग़रीबी सीमा रेखा 90 के दशक में 51.94 फीसदी ग्रामीण और 39.9 प्रतिशत शहरी ग़रीबी सीमा रेखा के नीचे थे 2004-05 के आंकड़ांे के अनुसार 4.7 फीसदी ग्रामीण और 1.5 प्रतिशत नगरीय इलाक़ांे में ग़रीब घटे हैं । लक्ष्द्वीप में 99.7 दमन दियू में 96.6, हिमाचल 94.5 अंडमान 94, गोवा 93 आदिवासी इलाक़ांे में मनरेगा, सन् 2001 की जनगणना के अनुसार 44 प्रतिशत आदिवासी घुमक्कड़ , 36.9 फीसदी खेत मजदूर, 2.1 प्रतिशत भूमि स्वामी नौकरी 16.3 फीसदी अन्य व्यवसाय जिसमे 81.6 प्रतिशत निचले स्तर के कार्यो से संबद्ध हैं। ग़रीबी सीमा रेखा 90 के दशक में 51.94 फीसदी ग्रामीण और 39.9 प्रतिशत शहरी ग़रीबी सीमा रेखा के नीचे थे। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमो में हजारो पद रिक्त है बैकलाग नही भरे जा रहे है। प्रथम श्रेणी की नौकरियो में मौजुदगी नगण्य है। कारोबारी क्षेत्र में यह समुदाय शुन्य है आदिवासियो की परंापरागत कला उपेक्षित है इस समुदाय से कोई बड़ा उद्यमी नही है। वनोपज कार्य ठेके पर है आदिवासी केवल मजदूर है। जाति प्रमाण पत्र आरक्षण सुविधा के तहत नौकरी पाने के लिए, जाति प्रमाण पत्र अनिवार्य है। भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर जो नियम बने हैं , उनसे जाति प्रमाण पत्र बनना कठिन हो गया है। जाति प्रमाण पत्र लिए आवेदक के अभिभावक का भूस्वामी होना या उसके पुरखो के पास जयदाद होना शर्त है। व्यवहारिक रुप से अधिकांश आदिवासी इसके अधीन नही आते है क्योकि उनके पास जमीन का मालिकाना नही था या है। आदिवासी जो नौकरी में हैं , उनके बच्चे बेहतर शिक्षा पाते हैं , लेकिन यदि उनके पालक या पुरखेा के पास ज़मीन नहीं है तो उसका जाति प्रमाण पत्र नही बन सकता है। छत्तीसगढ़ के कोरिया जि़ले के एक आदिवासी का चयन तहसीलदार पद पर हुआ था, उसके पिता साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड में 23 वर्षो से नौकरी कर रहे हैं, लेकिन उसे जाति प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया गया। इसी तरह से पटवारी ,शिक्षक, और अन्य पदों के विरुद्ध चयनित कई ऐसे लोग इस जि़ले में , जिन्हे पैतृक ज़मीन नहीं होने के कारण, स्थायी जाति प्रमाण पत्र नहीं दिया गया जिससे उन्हे नियुक्ति नही मिली । मज़े की बात यह है कि शालेय व अन्य अभिलेखो के अनुसार ये आदिवासी हंै, और इस आधार पर उन्हे छात्रवृति आदि मिली बाकी अन्य सुविधाओ को पाने में कही भी भूमिहीनता आड़े नही आती है लेकिन नौकरी के लिए जाति प्रमाण पत्र के लिए अनिवार्य शर्त है इस तरह के नियम से जीवन स्तर गिरा है और कानून की आत्मा हताहत हुई है। विलुप्त प्रजातिया व संरक्षित जन जातियां सन् 1950 में 744 जातियां सूचीबद्ध की गयी हैं, जो विलुप्त होने की सीमा पर थीं। जनजाति आयोग के अनुसार पी एस सी टी जी श्रेणी में वह प्रजातियां आती हैं , जिनकी संख्या वृद्धि स्थिर हो और कृषि प्राद्यौगिकी न्यून स्तर पर हो , दूर और अलग क्षेत्र के अस्थायी आवासो में रहने वाले ऐसे बाशिंदे जिनकी साक्षरता 5 फीसदी से कम हैं प्रतिरोध क्षमता की कमी के चलते कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई पर संकट मंडरा रहा है। पंडो कौरव अंडमान आदिम जनजाति विकास और उपेक्षा दोनों के आंकड़े उलझे हुए हैं । विकास के लक्ष्य की तस्वीर जितनी रंगीन है, वास्तविक धरातल पर अनुसूचित जातियों की स्थिति का चेहरा उतना ही काला है। इसी तरह से विलुप्तप्रायः जनजातियों को संरक्षण की योजना और कार्यक्रम खु़श करने वाले हैं लेकिन ग्रेट अडमानी जाति की बो प्रजाति की अंतिम सदस्या सीनियर बोया के 5 फरवरी 2010 में हुए अवसान सवाल खड़े करते हैं ? यह प्रजाति 65 हज़ार साल पुरानी मानी जाती थी, जो हर आपदा में सुरक्षित रहे लेकिन आधुनिक जीवन से तालमेल बैठाने में विफल रहे। सन् 1901 की गणना के अनुसार बो प्रजाति के 22 पुरुष और 26 महिला कुल 48 सदस्य जीवित थे इस गणना के अनुसार कारीकोरी 39, जेरु 218, कोदें 59 काले कल 11, जवाई 48 ,पुक्चीवार 50, बाले 19, बीया 37 जिवित थे कुल मिला कर 625 सदस्य थे । सन् 1994 में किये गये अध्ययन के अनुसार जेरु 9, बके 15, कारी 2 और स्थानीय प्रजाति के 2 सदस्य बचे हैं इसी तरह से पंडो और कौरव प्रजाति की संख्या लगातार घट रही है। सन् 1789 में किये गये एक अध्ययन के अनुसार इनकी आबादी करीब दस हजार थी, जो 1901 में घटकर 625 हो गयी। 1951 में 25, 1961 में यह संख्या न्यूनतम स्तर पर पहंुच गयी तब केवल 19 दर्ज किये गये लेकिन 1971 में बढ़ कर 24 और 1986 26 1999 में बढ़ कर 41 हो गये। जरावा 341 बचे हैं भारत सरकार गृृह मंत्रालय जनजाति मामले मंत्रालय निकोबाद प्रशासन मंत्रालय जरावा जन जाति नीति 2004 दिसम्बर में अधिसूचित किया गया इसके तहत पोर्ट ब्लेयर अस्पताल मे इनके लिए विशेष वार्ड का निर्माण कराया गया। जरावा जाति की संख्या 847 से बढ़कर 1228 हो गयी है। सेटीनलास पाषाण युगीन और शैपेन जो मंगोल प्रजाति हैं आमगे ओगे सबसे पुरानी जन जाति हैं, जो नेगरिटो नस्ल की हैं। मध्य अंडमान में रहने वाली केवे 1931, कोल 1921 पश्चिम अंडमान जरावा भी विलुप्तप्राय जनजातियां हैं। छत्तीसगढ़ पांच जनजाति कमार, बैगा, कोरवा, बिरहोर, अबूझामाडि़या को संरक्षित जाति घोषित किया गया है। जी एच एस के आंकड़ो के अनुसार कमारो की संख्या 26 हजार बची है। विभिन्न कारणेा यथा भूखमरी बीमारी प्राकृतिक आपदा के चलते भारी अकाल मुत्यु उपरांत भी जनजाति संख्यात्मक वृद्वि अजूबा से कम नही है। 2001 की गणना के अनुसार आदिवासी जनसंख्या 8.43 करोड़ थी जो सकल आबादी का 8. 2 फीसदी हिस्सा है। 1991 से 2001 के बीच 24.45 फीसदी की वृद्वि आंकी गयी थी। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार पिछली गणना की तुलना में 20 प्रतिशत वृद्वि आंकी गयी है। आदिवासियो की संख्या बझ़ने का अजूबा इसलिए है साल दर साल नयी नयी जातियो को जनजाति का दर्जा देकर संख्या को पुरा कर लिया जाता है हाल में ही छत्तीसगढ़ की सात जातियो को जनजाति का दर्जा दिया गया है। भू समस्या व विस्थापन जन और जंगल जनजातीय जीवन समर्थन प्रणाली के आधार भूत तत्व हैं , आयोग इन संसाधनो पर हो रहे प्रहार से चिंतित है। अंग्रेजी शासनकाल में पहली वन नीति बनी थी और 1865 और वन भूमि अधिग्रहण कानून 1894 अस्तित्व में आया था । इसमें सावर्जनिक उदेश्यो की पूर्ति हेतु जमीन को अधिग्रहण करने का प्रावधान था आजादी के समय इस कानून को यथा स्थिति में स्वीकार कर लिया गया। वर्ष 1952 और 1988 में वन नीति बनी किंतु वन कानून यथावत रहा इसकी बिसंगति को देखते हुए वर्ष 2013 में नया भूमि अधिग्रहण कानून पारित किया गया हैं। किंतु हुई देरी की सजा जनजाति समुदाय के लिए बहुत भारी रही है। सार्वजनिक उपयोग के नाम पर जंगल की जमीन मुफ्त में आदिवासियो के हाथे से छीनी जाती रही है। ब्रीटीश काल में रेलवे, बांध और उद्योगो के लिए बड़े पैमाने पर जमीन ली गयी और वनवासियो को बेदखल कर दिया गया मालिकाना का अभिलेख नही होने के कारण इन्हे किसी तरह का मुवाअजा भी नही मिला। आजादी के बाद, 2000 वृहद सिंचाई परियोजनाओं में विस्थापित होने वाले लाखों लोगो में आदिवासियो की संख्या आधे से अधिक है । सन् 1950 -60 के दशक में बंगाल के वीर भूमि , पश्चिमी दिनाजपुर, मालदा , चौबीस परगना, बांकुड़ा, पुरुलिया, हुगली, मिदनापुर में बेदख़ली अदिवासी जमीन बड़े पैमाने पर ग़ैर आदिवासियों को स्थानांतरित कर दी गयी । अस्सी और नब्बे के दशक में विश्व बंैक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से बनाये गयी छोटी परियोजनाएं ज़्यादातर उन इलाको में बनी जहां आदिवासी आबादी ज्यादा थी। नतीजतन बड़ी संख्या में जनजाति के लोगो का विस्थापन हुआ, वन संरक्षण योजनाओं में भी आदिवासी के लिए भारी रही है । उनकी आमदनी र्और इंधन के मुख्य प्राकृतिक स्त्रोतों पर पांबदी लगा और अभ्यारण्य से इन्हे बेदख़ल कर दिया गया। अनसूचित क्षेत्र भूमिहीन आवास हीन गरीबी अमीरी ज्यादातर आदिवासी खेतिहर मज़दूर हैं या निचले स्तर के अकुशल कार्यों से जुड़े हुए हैं । वन भूमि अधिकार कानून, धारा 170 ख , और भूमि विक्रय कानून आदि भू हकदारी से संबधित विधिया अपनी जगह है सच्चाई यह है कि भू विस्थापन का शिकार सबसे ज्यादा यही तबका हुआ है । आदिवासी बाहुल्य इलाको के नगरीय आबादी मे आदिवासियो की संख्या नगण्य है, इस अंचल के नगरीय मुख्य मार्ग पर किसी आदिवासी का मकान दिखना दुर्लभ है इसे जातिगत शर्मिलेपन से जोड़ कर देख जाता है लेकिन मूल सवाल है कि इनकी जायदाद गै़र आदिवासियो के हत्थे कैसे चढ़ गयी ? एक तरह से इनकी बगिया लूटने के बाद ज़मीन का मालिकाना नया भू अधिग्रहण कानून आया है लेकिन इससे उजड़ चुके लोगो को फ़ायदा नहीं मिलना है जहां उद्योग लग चुके हैं, वहां ज़मीन मिलना नहीं है और बिना मालिकाना के दस्तावेज के मुवाअज़ा देने का प्रावधान नहीं है, जनजाति पुश्तैनी रुप से जहां खेती करते रहे उस पर उनको हकदाऱ नहीं मानना, प्रशासनिक असंवेदनशीलता है । अदालते भी कानून देखती हैं , यह न पूछती और समझती हैं कि अगर ज़मीन और धंधा नहीं था तो यह लोग जीते कैसे थे और रहते कहां थे ? पलायन आदिवासी अंचल का पलायन चिंताजनक स्तर पर है रोजगार की बेहद कमी है जो बड़े उद्योग इन क्षेत्रो में है उनमें अशिक्षित आदिवासियो के लिए जगह नही है। अकुशल कार्यो में भी अनुभव और कौशल की आड़ में ज्यादातर अन्य संगठित जातियो के लोगो को काम की प्राथमिकता है। 2012 में 20 राज्यो में जनजाति पलायन पर किये गये अध्ययन के अनुसार महिला अध्ययन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी क्षेत्रो में विकास के नाम पर बनाये जाने वाले बांध और लगाये जाने उद्योगों के चलते आदिवासी मूल के लोग विस्थापित हुए है। सरकारी पुर्नवास योजनाओ जमीन पर न के बराबर है। वन संरक्षण योजनाओं में भी आदिवासी की आमदनी र्और ईधन के मुख्य स्त्रोतो पर पांबदी लगने तथा जंगल से बेदख़ल करने तथा अनुसूचित क्षेत्रों में रोज़गार एवं कृषि मज़दूरी की अनुपलब्धता पलायन के मुख्य कारण हैं। मनरेगा , स्वरोजगार, प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि से अवश्य कुछ उम्मीद बंधती है , लेकिन लब्धिया संतोष जनक नही है स्वरोजगार योजनाए प्रभावी नही सिद्ध हुई है एक तो आदिवासियो की शिक्षा का दर गिरी हुई है दूसरे इसको पाने के लिए पापड़ अलग बेलने पड़ते है स्वभाव से भी आदिवासियो का कारोबारी न होना भी बाघा है। प्रशिक्षण का स्तर विकसित नही है ज्यादतर निचले स्तर के प्रशिक्षण दिये जाते है बाजार के बदलाव और मांग की ओर ध्यान दिया जाता है तकनीकी कार्यो के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा स्तर का मानदंड है जिसे बड़ी आबादी पूरा नही कर पाती है। फिर भी इनक कार्य क्रमो को राहत के रुप में देखा जा सकता है इसके बाबजूद भारी पैमाने पर हो रहा पलायन आंखें खोलने के लिए काफी है अपराधिक जन जातियां 315 खानाबदोश जनजातियां हैं। इनमें से अंगे्रजी हुकूमत के समय बने आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 उत्तर भारत में बंगाल प्रेसीडेंसी क्रिमिनल ट्राइव्स एक्ट 1911, आपराधिक जनजाति अधिनियम 1924 मद्रास प्रेसिडेंसी के अधीन 127 जन जाति समूह के लोगो को जन्म से अपराधी करार देते हुए करीब 13 लाख लोगो को ग़ैर ज़मानतीय अपराध के आदतन अपराधी के रुप के रुप में चिन्हित किया गया था। । मेरुकला ( आन्ध्र, तमिलनाडु, कर्नाटक), बघारी,( गुजरात) मुस्कुलथेर (तमिलनाडु) चरण, परिधि ( महाराष्ट, मघ्यप्रदेश) , सांसी ( राजस्थान), सबंर (बंगाल),नट (बिहार), मीणा(राजस्थान), महातम (राजस्थान, पंजाब), लोढ़ा(बंगाल), लम्बदिस (आन्ध््राा), कुरावा (तमिलनाडु, केरल), कंजर (राजस्थान), धीकरु (बंगाल), छारा (गुजरात, छत्तर नगर) , बाबरिया (राजस्थान ,पंजाब), बौरिया(राजस्थान, पंजाब), बोरिस (राजस्थान, पंजाब), जारे (राजस्थान पंजाब), लूच (राजस्थान), बघीर (राजस्थान) आदि जातिया इसके अंर्तगत थी। सन् 1949 में बी.बी. खरे कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर इसे समाप्त कर दिया लेकिन इसकी जगह 1952 में आदतन अपराध के अभ्यासी अपराधी अधिनियम को लाया गया जो पूर्व अपराधिक जनजाति का बदले हुआ या कुछ सुधरा हुआ रुप है । वर्तमान में इनकी आबादी 60 लाख है ग़रीबी के चलते आज भी यह कुछ जनजातियो देह व्यापार करने पर मजबूर है। मंदसौर राजमार्ग पर जिस्मानी कारोबार से संलिप्त बेडि़या, बछेड़ा जाति के उद्वार के लिए जबाली योजना बनायी गयी । लखनउ के पास का नट पुरवा की पहचान वेश्यावृति के व्यवसाय से है। राजस्थान के राजनट परिवार की लड़किया दिल्ली के मंडी बहुधा देखी में आयी है। गुजरात की सरनिया जनजाति मुबई दिल्ली हाइवे के देह व्यापार में है। मुरैना जि़ले में भेदिया जनजाति में नथ उतारवायी की परंपरा हैं। यहां कुवारी लड़की को नथ पहना दी जाती है , फिर उसके कौमार्य का सौदा होता है। मानव सफारी आपराधिक जन जाति की तरह आदिवासियो का व्यवसायिक उपयोग अंग्रेजीकाल का बेहद शर्मनाक पहलू है। अंडमान मानव सफारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बंद की गयी। यहां जवारा जन जाति के बच्चो को सजा के पर्यटकों के मनोरंजन के लिए पेश किया जाता था ताकि वे देख सकें कि परापरिक आदिवासी कैसे रहते हैं ? प्राकृतिक रूप से रहना पसंद करने वाली महिलाओ का नजारा लेने के लिए देश और विदेश के अमीर पर्यटक भारी तदाद में आते थे । इस अमानवीय व्यापार पर अंतराष्ट्रीय संगठनो ने भी उगली उठायी थी। अबूझमाड़ का घोटुल, एक समय विदेशी सैलानियो और शोघकर्ताओ के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा हैं पैसे देकर की गयी फ़िल्मकारी से अरबो की कमाई की गयी बाद में आदिवासी अस्मिता के नाम पर इस पर कुछ पांबंदी लगाई गयी । मानव तस्करी देश भर से ग़रीब आदिवासी लड़कियो को अच्छी पगार की लालच देकर ले जाया जाता है फिर उनके साथ जो होता है वह सुर्खिया बनती हैं । झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा की हज़ारो लड़कियां गुम हो चुकी हैं , जिनका कोई अता पता नहीं है। रोज़गार के बेहतर अवसर होने के बाद भी आदिवासियो का कमाने के लिए पलायन एक बड़ी समस्या है महिला पलायन सामाजिक आर्थिक प्रभाव छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश झारखंड उड़ीसा कि स्थिति पर योजना आयोग द्वारा 2010 किये गये अध्ययन से कई चौकाने वाले खुलासे हुए हैं । सूखे के दौरान कालाहांडी , बलांगीर की अल्पवयस्क बालिकायें बहुत सस्ती बिकी इनके पालको की सोच थी की वे कम से कम भूख से बच सकेगी गरीबी के चलते यह क्रम आज भी जारी हैं पंजाब हरियाणा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के संपन्न किसानो के यहाँ बधुवा की तरह कम करने वाले आदिवासी कम नहीं हैं उग्रवाद आदिवासी अंचल में फैल रहा उग्रवाद देश की चिंता का विषय बन चुका है बिगड़े हालात के मददे नजर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा मानते है। आदिवासी विकास की तरह एक समानांतर व्यवस्था जनजाति अंचल में उग्रवाद के उन्मूलन के लिए है। पूर्वोत्तर के सात राज्य और जम्मू कश्मीर जनजाति व अलगावादी हिंसा, तथा छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, बंगाल, का बड़ा इलाका नक्सली हिंसा की चपेट में है। इसके शमन के लिए सुरक्षा के इंतेजाम की पुख्तगी के साथ विशेष आर्थिक उपाय किये गये है। जनजातीय स्थिति से स्पष्ट है कि जो कुछ हुआ है वह काफी होने के बाद भी परिणाम मूलक नहीं है। बार बार आरक्षण की अवधि बढ़ाये जाना इसका सबूत है कि मिशन अभी अधूरा है जनजातियां अब भी पिछड़ेपन के दलदल में फंसी हुई हैं । आरक्षण से अब एक नयी समस्या पैदा चुकी है , भ्रमवश, उनका विकास नही कर पाने की नाकामी को , एक तरह से जातीय सुविधा या अधिकार माना जाने लगा है इससे जातीय विभेद पैदा हो चुका है। जिसकी धमक अक्सर चैक चैराहांे और आपसी चर्चा में सुनायी देती है। इसी तरह से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून एक राहत है , हल नहीं है । इससे जीवन स्तर में सुधार की आशा बेमानी है ग़रीबी सीमा रेखा आदमी की कमज़ोर स्थिति को दिखाती जरुर है लेकिन उससे उबारती नहीं है। किसी कार्य के नतीजे से अच्छा दूसरा आंकलन नही हो सकता है सफलता से ही निर्धारित लक्ष्य की प्रतिपूर्ति होती है। जनजाति मामलों में यह उतनी सफल नहीं रही है। इसलिए समस्याऐ सर उठाये हुए है नीति योजना कार्यक्रमो की कमी नहीं है, उद्देश्य और मंशा भी आदर्श है । केन्द्र और राज्यों की नीतियां भी कमोबेश उदार हैं , लेकिन बढ़ती ग़रीबी , बीमारी, बेकारी से जो सवाल खड़ा हुआ है उसका समाधान खोजा जाना ज़रुरी है। इसके लिए सबसे पहले देखना होगा कि योजनाएं फलीभूत क्यों नहीं हुई ? उन कारणो या कमी को दूर किये जाने से ही वांछित लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। मगर यह होगा कैसे यह यक्ष प्रश्न सामने है। विकास के नाम पर खर्च की गयी सकल राशि का सही उपयोग होता तो जनजाति निसंदेह आज अग्रणी पंक्ति में होती । ऐसा नही होना इसके अलमबरदारो की नीयत की खोट का संकेत है। इस मामले में सरकारी हो या समाजिक दोनो का राग एक है वे अपने अंदर झांकने के बजाए खामियो के लिए दूसरो के जानिब तकते है। वास्तव में देश में केवल एक ही विभाग ऐसा है जो अधिकारिक शक्ति पाते ही , दिए गये समय में , दुर्गम से दुर्गम क्षेत्र में एवं कठिन से कठिन परिस्थिति में , नियमानुसार चलते हुए लक्ष्य हासिल कर दिखाता है, वह भी उपलब्ध प्रशासन एवं प्रदत्त सुविधाओं के अंतर्गत। एक कथित बिगड़ी कार्यसंस्कृृति वाली बड़ी प्रशासनिक फौज से मनचाहा अनुशासित समयबद्ध लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त करने का कार्य केवल यही विभाग कर पाता है। वह है चुनाव आयोंग। अब वह क्यों कर पाता है, सिर्फ इसलिए कि समस्त देश में सत्तासीन एवं संभावित सत्तासीन राजनैतिक लोगों के भविष्य का सारा दारोमदार चुनाव प्रक्रिया पूर्ण होने पर ही निर्भर है। अर्थात् संदेश साफ है कि जब राजनीति का परम लक्ष्य हर स्तर के भारतीयों की भलाई की हो जाएगी, उस दिन सभी लक्ष्य व्यवहारिक हो जाएंगे। लेकिन कब होगा ऐसा और कैसे ? तब जब जनता तेरा मेरा भूल कर देश के लिए सोचेगी और सत्ता पर दबाव बनाने में समर्थ होगी। और इसका सीधा मूलमंत्र है कि स्वार्थ त्याग दो सब के लिए सोचो और कार्य करो। उम्मीद ही जीवन है... राष्ट्र की जि़ंदगी के लिए उम्मीद भी ज़रूरी है। दरअसल कुछ भी नहीं बदला, स्थिति और भी बदहाल हो गई है, स्थिति एवं जीवन स्तर में सुधार हुआ है आदि आंकलन का क्या मूल्य जब तक कि हमने अपनी मूल्यांकन और योजना समीतियों में वास्तविक पीड़ा झेल रहे जनजातियों के सामान्य जनों को स्थान दिया ही नहीं, दिया भी तो उन नगण्य लोगों को जो नीतियों के लाभ से प्रदत्त अवसर या स्वयं की योग्यता से उस मूल परिस्थिति से उबर चुके हैं और अपने समाज के कष्टों की अनुभूति से दूर अपने संसार में गुम हैं । मुश्किल यह है कि साहिल पर बैठे लोग तूफ़ान में घिरी नाव को बचाने के मंसूबे बांधते हैं, ईरादे नेक होने के बावजूद वे नहीं जानते कि असल में वास्तविक परिस्थियां झेल रहे लोगों को क्या चाहिये ? कैसे उन के विचारों को साथ ले कर उन्हें शेष संसार की ओर ले आया जाए? यदि वे डूबने को ही अपने जीवन की नियति समझते हैं , तूफानों को स्वभाविक जीवन तो यह इस लिए कि उन्हें अन्य वैश्विक बदलावों का पता नहीं है। यदि उनकी समझ में उनकी जीवन शैली में बदलाव लाने वाले उनके हितैषी नहीं हैं तो ज़रूरी है कि उनका विश्वास जीता जाए। आखि़र विश्व में एवं भारत में भी कुछ जनजातियां अपनी संस्कृति एवं जीवन शैली यथावत जीवित रखते हुए भी प्रगति कर रही हैं तो अन्य जनजातियां क्यों अपनी ग़लत परम्परायें नहीं छोड़ पा रही है ? जब क़ानून और नीति में लाभ पाने वाले वर्ग को ही दिलचस्पी नहीं होगी तो प्रशासन को ईमानदारी से लागू करने की मेहनत की क्या ज़रूरत होती होगी, इसलिए सारा खेल विशेष लोगों को लाभान्वित करने एवं आंकड़े भेजने पर जा कर ख़त्म को जाता है।
 जावेद उस्मानी 
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